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Wednesday 11 September 2013

Kyun?...

क्यूँ??

ये पलकें मेरी गीली हैं क्यूँ ?
चाँद है, तारे हैं, फिर भी रात अकेली है क्यूँ ?
सपाट सुनसान सी दिखती राहें,
चल पड़ने पर पथरीली है क्यूँ?

जो कर सकू न पूरे बस वो इरादे हैं क्यूँ?
जिन्हें रह जाना है अधूरा , वो वादे हैं क्यूँ ?

चितकबरे रंगों से रंगी जीवन की ये किताब ,
पर रंगना था सचमुच जिन्हें ,
वो पन्ने सादे हैं क्यूँ?

देखें जो भी ख्वाब हम,
वो ख्वाब , वो सपने , सिर्फ सपने हैं क्यूँ?

ये सपनो की भीड़ है आँखों में ,
या सिर्फ एक ही सपने का पर्दा है,
नज़रे धुंधला जाती हैं,
फिर भी ये जान गया मैं 
चाहे पा लूँ सबकुछ,
रहेगी कमी कुछ न कुछ,
इसी आस में नज़रे टकटकी लगाएंगी,
और पलकें गीली हो आएँगी

3 comments:

  1. Kaafi achchhi panktiyan hai Rishav. Ab tum ek mature author ban gaye ho. Very good! :) Misaalon (examples) ka bhi use badhao thoda taaki aur asar pade reader par.

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  2. Dhanyawad!! ab sincerity laani hai thodi apne society k liye...

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