उम्मीद
कभी देखता हूँ खिडकियों से बाहर मैं ,दिखती है चिड़िया तो कभी तितलियाँ,
हरी ज़मीं, नीला वो आसमां !
इठलाती ये नदी,
रौशनी, धूप ,
लगता है कितना प्यारा ये नज़ारा,
पर सिर्फ किरणों में सूरज की,
गम भी तो हो जाता है, ये सारा का सारा!
वक़्त की ओट में, सहारा लेकर अँधेरे का,
कहीं खो सा जाता है ये नज़ारा,
किरने तो हैं रात में भी,
चाँद की सही पर सूरज है साथ में ही,
पर दिखती नही चिड़िया ना ही तितलियाँ,
गौर करूँ तो हैं गायब मेरी खुद की परछाइयाँ,
कभी सोचता हूँ ये जो पंछी गए हैं, क्या लौटेंगे?
ये जो कतरे बह चले हैं, कभी फिर दिखेंगे?
इन्ही सोचों का कारवां संग एक नाउम्मीदगी ले आता है,
ये सिलसिला बेचैन कर जाता है,
लेकिन इन हवाओं में जो साँसों का जोर है,
या मेरी फितरत ही है शायद,
एक उम्मीद एक भरोसा जाग ही जाता है,
भले कल ये ही पंछी ना हो, भले कल ये ही कतरा न हो,
पर रौशनी लौटेगी, सूरज के साथ सुबह आएगी,
कल वक़्त के साथ नए कतरे आयेंगे,
शायद ये पंछी भी लौटेंगे
सुबह सूरज की किरणों में, रौशनी में,…शायद
और भी हो प्यार ये नज़ारा।
No comments:
Post a Comment